इस Blog में दी गयी कविता Teachers के प्रति समाज द्वारा की जाने वाली बेतुकी बातों पर एक कविता के माध्यम से कवि हमें शिक्षकों के प्रति समाज द्वारा किये जाने वाले बुरे व्यवहार या बेतुकी बातों के बारे में बताना चाहते हैं कि लोग किस तरह से पीट पीछे शिक्षकों की बुराइयाँ करते हैं जिसके कारण कईं बार तो शिक्षकों को शर्मिन्दगी का सामना भी करना पड़ जाता है।
इन्हीं बुराइयों को सुन-सुनकर के कवि का एक साथी ( शिक्षक ) आत्महत्या कर लेता है जिसके चलते कवि को कुछ क्षण के लिए समाज में रह रहे उन बुरे व्यक्तियों पर क्रोध आ जाता है। अतः कवि हमें इस कविता के द्वारा बतायेंगे कि समाज में रह रहे कुछ बुरे व्यक्ति शिक्षकों के प्रति अपने मन में किस तरह के विचार रखते हैं, तो आइये इस Blog को पढ़ना शुरू करते हैं।
"जीते जी नहीं मिली साथी को सांत्वना"
हम भी शिक्षक हुआ करते थे,
बालकों संग सजता था दरबार।
चौराहे पर लटकी घण्टी बन गये,
हमें कोई भी बजा देता है साहब।
सारे विभाग हुकुम चलाते हैं हम पर,
हम भूले हमारा मूल काम काज।
दिन तीस काम बत्तीस करने पड़ते हैं,
कोरोना ने भी करी कोढ़ में खाज।
अर्थ : जब कवि के शिक्षक साथी को उसके जीते जी समाज द्वारा कोई इज्जत नहीं मिलती है, तो कवि समाज के उन बुराइयाँ करने वाले व्यक्तियों पर अत्यधिक क्रोधित हो जाते हैं और कहते हैं कि उनके साथी को जब वह जीवित था तब तो किसी ने उसे इज्जत नहीं दी, और उसके मरने के बाद सभी उसे सांत्वना देने के लिए आ गये। और वह आगे बताते हैं कि पहले मैं भी एक शिक्षक था, और जब मैं बालकों को पढ़ाता था तो ऐसा लगता था जैसे मानो कि पढ़ने वाले छात्रों का कोई दरबार सजा हो।
परन्तु अब तो शिक्षकों को समाज के कुछ बुरे व्यक्तियों ने चौराहे पर लटकी हुई एक घंटी की तरह बना दिया है, जिसे कोई भी आता है और बजा जाता है। अर्थात अब तो शिक्षकों का छोटा या बड़ा अधिकारी कोई भी, यहाँ तक की उनके छात्र भी उन्हें किसी ना किसी बात पर दो बातें सुनाकर ही चले जाते हैं।
कवि बताते हैं कि सभी सरकारी विभाग के कर्मचारी हम शिक्षकों पर अपना हुकुम चलाने में लगे रहते हैं अर्थात हर सरकारी विभाग के कर्मचारी हम पर अपना कोई ना कोई कार्य थौंप देते हैं, जिसके कारण अपने पढ़ाने के मुख्य कार्य को भी हम भूल जाते हैं।
आगे कवि बताते हैं कि हम शिक्षकों को तीस दिन कार्य करने की तनख्वाह मिलती है जिसमें भी हमें बत्तीस काम करने पड़ते हैं, और अब तो कोरोना ने भी उनके कार्य को ओर अधिक बढ़ा दिया है।
फिर भी सभी लोग रोना रोते हैं कि,
शिक्षकों को मिलती है खूब पगार।
काम धाम यह कुछ करते नहीं हैं,
मुफ्त की ढपली मुफ्त का राग।
सबसे ज्यादा छुट्टियाँ भोगते हैं यह,
बच्चों को केवल करते हैं फेल पास।
शिक्षक की गिरा दी गई है गरिमा,
समाज में उड़ाया जाता है उपहास।
अर्थ : आगे कवि बताते हैं कि सभी लोगों का हमेशा यही रोना लगा रहता है कि सरकारी विभाग के शिक्षकों को तो खूब पगार मिलती है।
कुछ लोग तो शिक्षकों के बारे में यह तक कहते हैं कि शिक्षक तो कुछ भी काम या कार्य नहीं करते, यह तो मुफ्त की ही सरकार से पगार लेने में लगे रहते हैं।
और आगे वह लोग कहते हैं कि शिक्षक तो अपने जीवन में सबसे ज्यादा छुट्टियों को भोगते हैं, और इनका तो केवल बच्चों को फेल-पास करने का ही काम रहता है।
तब कवि कहते हैं कि आज के समय में कुछ बुरे व्यक्तियों ने आपस में मिलकर के शिक्षकों की गरिमा या मान-मर्यादा को पूरी तरह से गिरा दिया है, और अब तो समाज में शिक्षकों का मजाक भी उड़ाया जाने लगा है।
एक तमगा और दे दिया गया है कि,
मास्टर जी होते हैं कंजूसों के बाप।
इनको कौन समझाये कि शिक्षक पर,
अन्य जिम्मेदारी का बोझ बेहिसाब।
ऐसा कोई काम बता दे कोई लाल,
जिसमें शिक्षक नहीं लेता हो भाग।
हजारों शिक्षक बना रखे हैं बीएलओ,
जो गली गली में छानते हैं खाक।
अर्थ : आगे कवि बताते हैं कि अब तो समाज ने सभी शिक्षकों को एक और उपाधी दे दी है, कि शिक्षक तो सबसे ज्यादा कंजूस होते हैं।
कवि कहते हैं कि ऐसे में इन लोगों को कौन समझाये कि शिक्षकों पर उनके कार्यों के अलावा भी अन्य कईं तरह की जिम्मेदारियों का बोझ होता है।
आगे कवि कहते हैं कि कोई व्यक्ति मुझे कोई ऐसा काम बता दे, जिसमें एक शिक्षक की कोई भूमिका ना हो।
ऐसे में सरकार ने भी हजारों B.L.O ( Booth Level Officer ) शिक्षकों को ही बना रखा है जिसके चलते सरकार ने भी चुनाव कार्यों में शिक्षकों की ड्यूटी लगा दी है, जिससे उन्हें अब गली-गली जाकर के चुनाव के कार्यों की देखरेख करनी पड़ती है।
साल भर काम चलता रहता है यह,
बालक जोते हैं गुरूजी की बाट।
पढ़ाना तो कभी कभार हो पाता है,
शिक्षक ढोता है अन्य कामों का भार।
सब कुछ दांव पर लगाते हुए भी,
शिक्षक से उठ रहा है विश्वास।
व्यवस्था ने पंगु बना दिया शिक्षक को,
लगातार गिरती जा रही है साख।
अर्थ : कवि बताते हैं कि इसी तरह से पूरे साल भर शिक्षकों से सरकार द्वारा कोई ना कोई कार्य करवाया जाता है, और हमेशा बालकों को इसी बात का इंतज़ार लगा रहता है कि उनके अध्यापक आयेंगे और उन्हें पढ़ायेंगे।
ऐसे में कवि कहते हैं कि शिक्षकों को अपने छात्रों को पढ़ाना तो बहुत कम समय के लिए हो पाता है, क्योंकि उन्हें तो अन्य सरकारी कार्यों को भी पूरा करना पड़ता है।
तब कवि कहते हैं कि इतना कुछ करने के बाद भी कुछ लोग शिक्षकों को सम्मान नहीं दे पाते, जिससे उनके छात्रों का भी उन पर से विश्वास कम हो जाता है।
आगे कवि कहते हैं कि हमारे देश की व्यवस्था ही ऐसी है जिसने हर शिक्षक को असहाय बना दिया है, जिसके चलते लगातार लोगों का शिक्षकों पर से भरोसा उठता ही चला जा रहा है।
छुट्टी तक का उपभोग नहीं कर पाता,
फिर भी शिक्षक सह रहा चुपचाप।
न्यायालय की ढाल भी बे असर है,
इस व्यवस्था के आगे सब लाचार।
पीईईओ साहब की कुछ मत पूछो,
दुनिया भर के कामों का इन पर भार।
दिन रात चुभता है इनको माथे पर,
सजा हुआ सुनहरी काँटों का ताज।
अर्थ : कवि बताते हैं कि शिक्षक सरकार द्वारा मिली हुई एक छुट्टी का भी ठीक तरह से उपयोग नहीं कर पाते हैं क्योंकि उन्हें तो अपनी छुट्टी में भी कोई ना कोई कार्य करने के लिए दे ही दिया जाता है, इतना कुछ करने के बाद भी लोग शिक्षकों की बुराइयाँ करने में लगे रहते हैं, जिन्हें भी एक शिक्षक चुपचाप सह लेता है।
आगे कवि बताते हैं कि हमारे देश की तो न्याय व्यवस्था ही ऐसी है जिसने सभी व्यक्तियों को लाचार बना दिया है, ऐसे में हम लोग तो न्यायालय जाकर भी अपनी तकलीफ के बारे में वहाँ के न्यायाधीश को नहीं बता सकते। क्योंकि लोगों की जुबान का तो क्या कर सकते हैं उन्हें तो पीट पीछे बुराइयाँ करने की आदत है तो वह तो करके ही रहेंगे चाहे कुछ भी हो जाये।
ऐसे में P.E.O साहब ( Professional Employer Organization Officer ) भी शिक्षकों के साथ ऐसे बर्ताव करते हैं जैसे मानो कि दुनिया भर के सारे कार्यों का बोझ ही इनके सर पर डाल दिया गया हो।
ऐसे में यदि शिक्षक दो घड़ी के लिए भी फ्री बैठ जाते हैं तो यह बात उन्हें चुभने लग जाती है और फिर वह अपने कार्यों को भी हम शिक्षकों के ऊपर डाल देते हैं, जिससे हम शिक्षकों का जीवन और अधिक काँटों से सज जाता है अर्थात शिक्षकों के कार्यों को और अधिक बढ़ा दिया जाता है।
|
Teachers के प्रति समाज द्वारा की जाने वाली बेतुकी बातों पर एक कविता |
तीन माह से तप रहे हैं बनके महात्मा,
बच्चों की भगवान ही रखे लाज।
एक साथी सदा के लिए बिछुड़ गया,
ढो नहीं पाया जरुरत से ज्यादा भार।
सह सकता था जब तक सहा उसने,
आखिर में शिक्षक ने मान ली हार।
जीते जी नहीं मिली साथी को सांत्वना,
अन्त में वह चला गया स्वर्ग सिधार।
अर्थ : कवि कहते हैं कि हम शिक्षक लगातार प्रतिदिन तीन माह से कड़ी मेहनत कर रहे हैं, ऐसे में हमारा ठीक तरह से छात्रों को भी पढ़ाना नहीं हो रहा, और आगे वह बताते हैं कि अब तो इन बच्चों की भगवान ही लाज रखे।
ऐसे में समाज द्वारा शिक्षकों के प्रति की जाने वाली बुराइयों को कवि का एक शिक्षक साथी ( मित्र ) सह नहीं पाता है और वह आत्महत्या कर लेता है।
तब कवि अपने साथी की याद में कहते हैं कि मेरा साथी जब तक समाज की बुरी बातों को सह सकता था तब तक उसने खूब सहा, और आखिरकार उसने इस दुनिया के लोगों के सामने हार मान ही ली।
आगे कवि बताते हैं कि मेरे साथी को इस समाज ने जीते जी तो कोई इज्जत नहीं दी, और अब उसके स्वर्ग सिधारने के बाद सभी लोग उसकी आत्मा को शांति देने के लिए उसके घर आ गए।
शिक्षकों से ऐसे काम भरपूर लो,
जिनसे हो सके शिक्षा का उद्धार।
लेकिन ऐसे कामों से पिण्ड छुड़ाओ,
जिनसे हो रहा शिक्षा का बंटाधार।।
अर्थ : कवि कहते हैं कि समाज के लोगों को शिक्षकों की बुराइयाँ करने के बजाय उनसे कुछ अच्छी बातों की सीख लेनी चाहिए, जिससे उनका और शिक्षा दोनों का उद्धार हो सके।
आगे कवि बताते हैं कि समाज के लोगों को ऐसे कोई भी कार्य नहीं करने चाहिए, जिनसे शिक्षा का नाम ख़राब हो।
👀 Hum Bhi Shikshak Huaa Karte The,
Balko Sang Sajta Tha Darbar .
Chourahe Par Latki Ghanti Ban Gaye,
Hame Koi Bhi Baja Deta Hai Sahab .
Saare Vibhag Hukum Chalate Hain Hum Par,
Hum Bhoole Hamara Mool Kam Kaaj .
Din Tees Kam Battis Karne Padte Hain,
Corona Ne Bhi Kari Kodh Me Khaj .
Fir Bhi Sabhi Log Rona Rote Hain Ki,
Shikshako Ko Milti Hai Khoob Pagar .
Kam Dham Yeh Kuchh Karte Nahi Hain,
Muft Ki Dhapli Muft Ka Raag .
Sabse Jyada Chhuttiyan Bhogte Hain Yeh,
Bachchon Ko Kewal Karte Hain Fel Pass .
Shikshak Ki Gira Di Gayi Hai Garima,
Samaj Me Udaya Jata Hai Uphas .
Ek Tamga Aur De Diya Gaya Hai Ki,
Mastar Ji Hote Hain Kanjooso Ke Baap .
Inko Koun Samjhaye Ki Shikshak Par,
Anya Jimmedari Ka Bojh Behisab .
Esa Koi Kaam Bata De Koi Lal,
Jisme Shikshak Nahi Leta Ho Bhag .
Hajaron Shikshak Bana Rakhe Hain B.L.O,
Jo Gali Gali Me Chhante Hain Khaak .
Saal Bhar Kaam Chalta Rahta Hai Yeh,
Balak Jote Hain Guruji Ki Baat .
Padhana To Kabhi Kabhar Ho Pata Hai,
Shikshak Dhota Hai Anya Kamo Ka Bhaar .
Sab Kuchh Daav Par Lagate Hue Bhi,
Shikshak Se Uth Raha Hai Vishwas .
Vyavastha Ne Pangu Bana Diya Shikshak Ko,
Lagatar Girti Ja Rahi Hai Saakh .
Chhutti Tak Ka Upbhog Nahi Kar Pata,
Fir Bhi Shikshak Sah Raha Chupchap .
Nyayalay Ki Dhaal Bhi Be Asar Hai,
Is Vyavastha Ke Aage Sab Laachaar .
P.E.O Sahab Ki Kuchh Mat Poochho,
Duniya Bhar Ke Kamo Ka In Par Bhaar .
Din Raat Chubhta Hai Inko Mathe Par,
Saja Huaa Sunhari Kaanto Ka Taaz .
Teen Maah Se Tap Rahe Hain Banke Mahatma,
Bachchon Ki Bhagwan Hi Rakhe Laaj .
Ek Sathi Sada Ke Liye Bichhud Gaya,
Dho Nahi Paya Jarurat Se Jyada Bhaar .
Sah Sakta Tha Jab Tak Saha Usne,
Aakhir Me Shikshak Ne Maan Li Haar .
Jeete Ji Nahi Mili Sathi Ko Santwana,
Ant Me Vah Chala Gaya Swarg Sidhaar .
Shikshako Se Ese Kam Bharpoor Lo,
Jinse Ho Sake Shiksha Ka Uddhar .
Lekin Ese Kamo Se Pind Chhudao,
Jinse Ho Raha Shiksha Ka Bantadhar ..
👉 हमें आशा है कि आपको ऊपर दी गयी कविता शिक्षकों के प्रति समाज द्वारा की जाने वाली बेतुकी बातों पर एक कविता को पढ़कर के समझ में आ गया होगा कि समाज यदि शिक्षकों को सम्मानित करता है, उन्हें एक गुरु का औदा देता है तो उसी समाज में कुछ ऐसे व्यक्ति भी हैं जो पीट पीछे से उन्ही शिक्षकों की बुराइयाँ करने में लगे रहते हैं।
अतः इस कविता से यही निष्कर्ष निकलता है कि हमें समाज के किसी भी व्यक्ति की बुराइयाँ करने से पहले यह अवश्य सोंच लेना चाहिए कि उनकी इन बातों का उस व्यक्ति के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ेगा। 👈